Tuesday, December 30, 2008

Mirza Ghalib

हज़ारो ख्वाहिशे ऐसी, कि हर ख्वाहिश पर दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले

हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी,
कुछ हमारी खबर नहीं आती

आगे आती थी हाले दिल पे हँसी,
अब किसी बात पे नहीं आती

न सुनो गर बुरा कहे कोई,
न कहो गर बुरा करे कोई,
रोक लो गर गलत चले कोई,
बख़्श दो गर खता करे कोई

रगो में दौड़ते रहने के हम नहीं क़ायल,
जब आँख से ही न टपका तो लहू क्या है

हर इक बात पे कहते हो तुम, कि तू क्या है,
तुम्ही कहो कि यह अन्दाज़े गुफ्तगू क्या है

जला है जिस्म जहाँ, दिल भी जल गया होगा
कुरेदते हो राख़, जुस्तजू क्या है

पुर हूँ मैं शिकवे से यूँ, राग से जैसे बाज़ा,
इक ज़रा छेड़िये, फिर देखिये क्या है होता

इस सादगी पर कौन न मर जाये, अय खुदा,
लड़ते हैं और हाँथ में तलवार भी नहीं

जब तवक्को ही उठ गयी गालिब,
क्यों किसी का गिला करे कोई
तवक्को = आस, उम्मीद

निकलना खुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन,
बड़े बेआबरू हो, तेरे कूचे से हम निकले
खुल्द = स्वर्ग

चाहिये अच्छो को जितना चाहिये,
अगर ये चाहें तो फिर क्या चाहिये
like the fair ones, as much as you like, and if they like you, then what do you want

बक रहा हूँ ज़ूनूँ में, जाने क्या क्या कुछ,
कुछ ना समझे, ख़ुदा करे कोई

कब सुनता है वो कहानी मेरी,
और फिर वह भी ज़ुबानी मेरी

हमको मालूम है ज़न्नत की हकीकत लेकिन,
दिल को खुश रखने को गालिब ख़्याल अच्छा है

कसम जनाजे पे आने की मेरे खाते हैं गालिब,
हमेशा खाते थे जो, मेरी ज़ान की कसम आगे

रात दिन गर्दिश में हैं सातों आस्माँ
होकर रहेगा कुछ न कुछ, घबराये क्या

की वफ़ा हमसे तो गैर उसको जफ़ा कहते हैं,
होती आयी है कि अच्छो को बुरा कहते हैं

मेरी किस्मत में गम गर इतना था
दिल भी या रब, कई दिये होते

इश्क ने गालिब निक्कमा कर दिया,
वर्ना हम भी आदमी थे काम के

केहर हो या बला हो, जो कुछ हो
काश़ के तुम मेरे लिये होते

गालिब बुरा न मान, जो वाअिज़ बुरा कहें
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
वाअिज़ = धर्मोपदेशक

रोने से और इश्क में बेब़ाक हो गये,
धोये गये ऐसे कि बस पाक हो गये

गैर से, देखिये क्या खूब निभाई उसने
न सही हमसे, पर उस बुत में वफ़ा है तो सही

चन्द तस्वीर‍ ऐ‍‌ बुताँ, चन्द हसीनो के खतूत,
बाद मरने के मेरे घर से ये सामाँ निकला

बोझ़ वो सर से गिरा है कि उठाये न उठे,
काम वह आन पड़ा है कि बनाये न बने


दोस्त गमख्वारी में मेरी, सअि फरमायेंगे क्या,
ज़ख्म के भरने तलक, नाखून ना बढ़ आयेंगे क्या

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,
कहते हैं कि गालिब का है अंदाज़े बयाँ और

पूछते हैं वह, कि गालिब कौन है,
कोई बतलाओ, कि हम बतलायें क्या

कर्ज़ की पीते थे मै, लेकिन समझते थे, कि हाँ,
रँग लायेगी हमारी फ़ाक़ः मस्ती, ऐक दिन

मुझसे मत कह, तू हमें कहता था अपनी ज़िन्दगी,
ज़िन्दगी से भी मेरा ज़ी इन दिनो बेज़ार है

फिर उसी बेवफ़ा पर मरते हैं,
फिर वही ज़िन्दगी हमारी है

मुहब्बत में नहीं है फर्क, ज़ीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पर दम निकले

उनके देखे से आ जाती है मुहँ पर रौनक,
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है

न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता, तो खुदा़ होता,
डुबोया मुझको मेरे होने ने, न होता मैं तो क्या होता

हुई मुद्दत, कि गालिब मर गया, पर याद आता है
वह हर इक बात पर कहना, कि यों होता तो क्या होता

कहूँ जो हाल तो कहते हो कि मुद्दा कहिये,
तुम्ही कहो, जो तुम यूँ कहो तो क्या कहिये

रहिये अब ऐसी जगह, चल कर जहाँ कोइ न हो,
हमसुख़न कोई न हो, हमज़ुबां कोई न हो

Friday, February 29, 2008

Kahe Kabir suno bhai sadho

साँई इतना दीजिये, जाँ मे कुटुम्ब समाये
मैं भी भूखा ना रहूँ, साधू न भूखा जाये

धीरे धीरे रे मना, धीरे से सब होए
माली सीँचे सौ घड़ा, ऋत आये फल होए

काल करे सो आज कर , आज करे सो अब
पल में परले होएगी, बहूरि करोगे कब

ऐसी वाणी बोलिये, मन का आपा खोए
अपना तन शीतल करे , औरन को सुख देय

माला तो कर में फिरे, जीभ फिरे मुँख माँहि
मनुआ तो चहुँ दिस फिरे, ये तो सिमरन नाँहि

बड़ा हुआ तो क्या हुआ , जैसे पेड़ खज़ूर
पंछी को छाया नही, फल लागे अति दूर

जब मैं था तब हरि नहीं, जब हरि हैं मैं नाहि
सब अँधियारा मिटि गया, जब दीपक देख्या माँहि

माला फेरत जुग भया, गया ना मन का फेर
कर का मनका डार देय, मन का मनका फेर

कबीरा खड़ा बज़ार में, माँगे सबकी खैर

ना काहू से दोस्ती, न काहू से बैर